खपटिहा कला/बांदा।
श्रावण मास के पुनीत पावन माह पर झूला झूलने का एक अलग ही मजा और अलग ही अंदाज है सबसे ज्यादा खुशी बच्चों को मिलती है हालांकि झूला मात्र एक रस्म अदायगी तक रह गया है ना अब साधारण झूले ही दिखाई पड़ते हैं और ना ही उन पर झूलने वाली महिलाएं बुजुर्गों के अनुसार प्रत्येक घर से बाहर एक बड़ा सा नीम या आम का वृक्ष होता था जिसमें महीने भर रस्सी के सहारे झूला पड़ा रहता था जिनमें बच्चे एवं किशोरियों झूला झूलती थी वही रात को बड़ी उम्र की लड़कियां वह विवाहित स्त्रियां सावन गीतों के साथ झूला झूलती थी साथ की महिलाएं सावन गीत गाती थी आज धीरे-धीरे यह प्रथा विलुप्त होती जा रही है अब तो यदा-कदा ही गांव में श्रावण मास में झूले पड़े दिखाई पड़ते हैं आज के आधुनिक जमाने पर नाटो अब कहीं झूले नजर आते हैं और ना ही उन पर ढूंढने वाली महिलाएं और ना ही सावन गीत सुनाई पड़ते हैं।
Crime 24 Hours से मितेश कुमार की रिपोर्ट